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एकादशी का महात्तम पढ़े और जीवल को धन्य बनवाए
*॥ श्रीहरि: ॥*
दिनांक १९ ,४१९२४
वि. सं. २०८१, पिंगल नाम संवत्सर चैत्र मास शुक्ल पक्ष एकादशी शुक्रवार
(गीता दैनन्दिनी अनुसार)
१ परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का प्रवचन
दिनांक २०.९.१९९३,
प्रातः ५.१८ बजे
स्थान भीनासर
२ गीता पाठ गीता माहात्म्य एवं अध्याय १ श्लोक संख्या १ से १० तक
एक निष्ठा रखना बहुत बढ़िया है, परन्तु अपने को एक जगह बाँध लेना ठीक नहीं है कि दूसरी जगह से कोई लाभ की बात ले ही नहीं सकें जैसे ज्ञानयोग कर्मयोग भक्तियोग हैं इनमें से किसी एक योगमार्ग को प्रधान मानकर चलना तो ठीक है लेकिन दूसरे योग मार्ग की बातें हम सुनना ही नहीं चाहें उन पर विचार ही नहीं करना चाहें यह ठीक नहीं है बुद्धि के दरवाजे दूसरे मत को सुनने के लिए खुले रखने चाहिएँ और कोई बात असंदिग्ध रूप से ठीक मालूम देती हो तो उसे स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए एक ही मत का आग्रह हो जाने से दूसरे मत के लाभ से हम वंचित रह जाते हैं और अपनी पूर्णता में हम खुद ही बाधा लगा लेते हैं
निष्ठा अलग है और बँधना अलग है हम अपने मत में निष्ठा रखें लेकिन बँधने से हम दूसरे की बात का तिरस्कार करेंगे निरादर करेंगे यह ठीक नहीं है कम से कम इतना तो होना चाहिए कि दूसरे का मत भी ठीक है लेकिन हमारे लिए तो हमारा मत ही उचित है
मतवादी समझे नहीं ततवादी की बात
हरिया तत्त विचारिये का मत सेती काम
तत्त बसे अमरापुरी मत का जमपुर धाम
मतवादी हो जाने से फिर वह दूसरी बात पकड़ नहीं सकता है इसलिए अपने मत को खुला रखना चाहिए दूसरों के लिए अपना अन्तः करण खुला रखने से अपनी उन्नति होती चली जाती है मैंने कई बार कहा है कि मैं ये जो भगवत्प्राप्ति संबंधी बातें बताता हूँ यह रास्ता बहुत जल्दी सिद्ध होता दिखता है जैसे श्रवण मनन निदिध्यासन आदि आठ अन्तरंग साधनों द्वारा प्राप्ति का भी एक रास्ता है लेकिन मैं जो मन बुद्धि इन्द्रियों अन्तःकरण से संबंध विच्छेद की बात बताता हूँ इससे बहुत जल्दी लाभ हो सकता है ऐसा मेरा विश्वास है लेकिन जो मैं मानता हूँ वैसा ही आप भी मान लें मेरा यह आग्रह उचित नहीं होगा आप इस पर विचार करें आपको ठीक लगे तो आप मानें नहीं ठीक लगे तो नहीं मानें हम तो सार ग्रहण के सीरी
नाना मत को देख निरन्तर देख भई दिलगीरी
सन्तो हम तो सार ग्रहण के सीरी
अच्छे महात्मा की खोज करना इतना बढ़िया नहीं है और अच्छे महात्मा को हम पहचान लें ऐसी योग्यता भी मालूम नहीं देती है इससे बढ़िया बात तो यह है कि हम अच्छे बन जायँ तो अच्छे महात्मा हमें खोजते हुए आ जाता था